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महाराणा प्रताप की मां महारानी जयवंता बाई का इतिहास । जयवंता बाई की जीवनी । जयवंता बाई की कहानी

History of Maharana Pratap's mother Maharani Jaiwanta Bai guaranteed Hindi। Biography of Maharani Jaiwanta Bai in Hindi । Maverick of Maharana Pratap's mother Jaiwanta Bai in Hindi

इस पोस्ट में आप महाराणा प्रताप की माता जयवंता बाई के बारे में जानेंगे। जयवंता बाई के बारे में ना तो इंटरनेट पर और ना ही किताबों में कुछ ज्यादा जानकारी उपलब्ध है।

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कुछ चुनिंदा पुस्तकों में ही जयवंता बाई के बारे में जानकारी दी गई है।

महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह ने कुल 20 विवाह किए थे और उनकी 45 संताने थी।

परन्तु ऐसा क्या था कि उन 45 संतानों में से सिर्फ महाराणा प्रताप का नाम ही स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है?

आखिर महाराणा प्रताप को ही वीर शिरोमणि क्यों कहा जाता है?

सिर्फ वे ही अपने सिद्धांतों के लिए जीवन भर क्यो अडिग रहे? महाराणा प्रताप ने ही जीत से ज्यादा सिद्धांतों और मूल्यों को क्यों माना?

इसके पीछे का कारण एक मात्र कारण है महाराणा प्रताप की मां जयवंता बाई की शिक्षा।

जयवंता बाई की दी गई शिक्षा और संस्कारों की वजह से ही महाराणा प्रताप आगे जाकर एक वीर और कुशल योद्धा बन पाए। महाराणा प्रताप जन्म से ही अपनी मां के ज्यादा करीब थे। 

महाराणा उदयसिंह के 25 पुत्र और 20 पुत्रियां थीं, जिनमें से महाराणा प्रताप एक थे।       

जयवंता बाई का व्यक्तित्व - जयवंता बाई का विवाह उदयसिंह के साथ क्यो हुआ?

Personality of Jaiwanta Bai - Reason for Jaiwanta Bai's marriage call by Udai Singh

महाराणा प्रताप की मां जयवंता बाई अखेराज सिंह सोनगरा की बेटी थीं जों कि जालौर के महाराजा थे। उन्हें शादी से पहले जयवंता कंवर के नाम से भी जाना जाता था।

जयवंता कंवर बचपन से ही बेहद साहसी और जांबाज थीं। जयवंता बाई महाराजा उदयसिंह की पहली पत्नी थीं। यह शादी बेहद ही रोचक और विशेष परिस्थितियों में हुई थी। 

इतिहासकारों के मुताबिक उदयसिंह के द्वारा राज गद्दी संभालने से पहले कुंभलगढ़ में कई बनवीर समर्थक राजपूत शासकों ने उदयसिंह पर संदेह जाहिर किया था।

उनको शक था कि उदयसिंह क्या वाकई में महाराणा सांगा और रानी कर्णावती के बेटे है, यह कैसे मान लें?

ऐसे में अखेराज सिंह ने कहा कि अगर मैं अपनी पुत्री की शादी महाराजा उदय सिंह से कर दूं तब तो आप मान लोगे ना! 

इसके बाद अखेराज सिंह ने अपने परिवार को कुंभलगढ़ दुर्ग में बुलवाया और यह शादी हुई।

महाराणा प्रताप का जन्म और जयवंता बाई द्वारा बालक प्रताप को उच्च संस्कारों की शिक्षा

Birth of Maharana Pratap and lofty values given ​​to Maharana Pratap by Jaiwanta Bai

स्वाभिमानी और मातृभूमि प्रेमी महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था जो कि वर्तमान में राजस्थान के राजसमन्द जिले में आता है। 

महाराणा प्रताप के जीवन के पहले तीन साल कुंभलगढ़ बीते थे। महाराणा प्रताप को दोस्तों द्वारा प्यार से पत्ता बुलाया जाता था।

चित्तौड़गढ़ के दरबार और राजनीति से दूर जयवंता बाई माँ ने महाराणा प्रताप और उनके छोटे भाई शक्ति सिंह( सज्जा बाई सोलंकिनी के पुत्र) को पौराणिक कथाओं और रामायण की कहानियाँ सुनाई। कुंवर प्रताप एक बहुत ही बुद्धिमान और सक्रिय बालक थे। तीन साल की छोटी सी उम्र में ही वह अपने उत्सुक सवालों से सभी को प्रभावित कर देते थे।


जयवंता बाई कृष्ण भक्त थीं इसलिए कृष्ण के युद्ध कौशल को भी प्रताप की जिंदगी में उतार दिया। उन्हें प्रशासनिक दक्षता भी सिखाई और जीवन में सिद्धांतों के प्रति अडिग रहने के संस्कार भी दिए।

महाराणा प्रताप की मां जयवंता बाई एक कुशल घुड़सवार भी थी और उन्होंने अपने बेटे को भी दुनिया का बेहतरीन अश्वारोही शूरवीर बनाया। 

जयवंता बाई द्वारा महाराणा प्रताप को दिए गए यही संस्कारों ने हल्दीघाटी के युद्ध और उसके बाद के हालात में प्रताप को दुनिया के समस्त शासकों से अलग साबित किया।

जयवंता बाई और उदयसिंह के मध्य तनाव 

The reason of tension between Udai Singh and Jaiwanta Bai

महाराणा प्रताप के जन्म के समय ही उदय सिंह ने खोए हुए चित्तौड़ को जीता था। इस विजय यात्रा में जयवंता बाई ने भी उदयसिंह का पूरा साथ दिया।

चित्तौड़ विजय के बाद उदयसिंह ने मालपुरा के सोलंकी और जैसलमेर के भाटी राजघरानों में शादियां की। रानी धीरबाई भटियानी ने महाराजा उदयसिंह को अपनी गिरफ्त में ले लिया और यही से जयवंता बाई के लिए मुश्किलों की शुरुआत हुई।

उदय सिंह ने फैसला किया कि अब अपने समस्त परिवार को कुंभलगढ़ से चित्तौड़गढ़ ले जाना सुरक्षित रहेगा क्योंकि उन्होंने अफ़गानों के साथ शांति संधि कर ली थी और उन्हें किले का एक हिस्सा दे दिया था। 

कुंवर प्रताप इन सब राजनीतिक क़दमों से अनभिज्ञ थे पर वो अपने नए घर में बहुत खुश थे।

बालक प्रताप, शक्ति सिंह के साथ तलवार चलाने का अभ्यास किया करते थे।

चित्तौड़गढ़ में आने के बाद रानी धीरबाई भटियानी महाराजा उदयसिंह को अपनी बातो से धीरे धीरे अपनी गिरफ्त में लेती जा रही थी।

जयवंता बाई अपने पति उदय सिंह की तीसरी पत्नी धीरबाई की चालाकी और अपने पति उदयसिंह के धीरबाई के प्रति अत्यधिक झुकाव होने से परेशान थी।

धीरे-धीरे स्थिति इतनी खराब होती गई थी अंततः दस साल की उम्र में बालक प्रताप को अपने पिता उदय सिंह तथा मां जयवंता बाई को अलग होते हुए देखना पड़ा। 

स्वाभिमानी और गरिमामयी जयवंता बाई अपने बेटे पर इन सब बातों का प्रभाव होते हुए नहीं देख सकती थी और अपने बेटे की शिक्षा से भी समझौता नहीं करना चाहती थी।

जयवंता बाई के द्वारा चित्तौड़गढ़ का त्याग

When Jaiwanta Baic left Chittorgarh due to buoy up tension with Udai Singh

इतिहास की कुछ पुस्तकों के अनुसार जयवंता बाई और महाराजा उदय सिंह के मध्य इतना तनाव बढ़ गया था कि जयवंता बाई को अपने बेटे प्रताप के साथ मज़बूरी में चित्तौड़गढ़ को छोड़ना पड़ा। जयवंताबाई लंबे समय तक किसी पर निर्भर रहने वाली महिलाओं में से नहीं थी।

जयवंता बाई कुछ समय के लिए जालौर में रही। यहां बालक प्रताप ने पहली बार अपने दादा से अपने पूर्वजों की प्रेरक कहानियां यही सुनी। प्रभावशाली राणा कुंभा, राणा सांगा के बलिदान और बहादुरी ने युवा राजकुमार पर छाप छोड़ी। 

जयवंता बाई कुछ दिन तो जालौर में रही परंतु महाराजा उदयसिंह के द्वारा जयवंता बाई पर वापस आने का दबाव बनाए जाने के कारण जयवंता बाई का बालक प्रताप के साथ जालौर में रहना संभव नहीं था। 

दरअसल जयवंता बाई अपने पुत्र प्रताप की सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित थी उन्हें डर था कि कहीं धीरबाई भटियानी उनके पुत्र को कोई हानि ना पहुंचा दे।

जयवंता बाई और पुत्र प्रताप का जंगलों में भीलों के साथ रहना

Jaiwanta Baic and son Pratap living exempt the Bhils in the forests

जालौर के बाद जयवंता बाई कुंवर प्रताप के साथ अपना भेष बदलकर भीलवाड़ा के जंगलों में रहने चली गई थी। 

वे राजसी ठाठ बाट से उकता चुकी थी और अपने बेटे कुंवर प्रताप की देखभाल एक सामान्य मां की तरह करना चाहती थी। 

अगले दो वर्षों तक जयवंता बाई अपने पुत्र के साथ भीलों के बीच में ही रही और जंगल के जीवन के बारे में  बहुत कुछ सीखा। जंगल में में बिताए गए इन 2 वर्षों के अनुभव के कारण ही शायद हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप इतना कठिन जीवन जी पाए।

महाराणा प्रताप को भील कीका कहकर बुलाते थे और उन्हें गुरिल्ला रणनीति और धनुष और तीर चलाने की शिक्षा दी। भील समुदाय को यह नहीं पता था की कुंवर प्रताप उदय सिंह के पुत्र थे।  

एक दिन कुंवर प्रताप ने अपने खंजर से एक बाघ को मार दिया और इस घटना ने भीलों को उनकी पहचान पर सवाल उठाने पर मजबूर किया। 

अंततः भीलों के सामने सच्चाई आ गई परंतु सच्चाई जानने के बाद भीलो का कुंवर प्रताप के प्रति प्रेम और बढ़ गया और उन्हें हर तरह से समर्थन देने का वचन भी दिया। 

जयवंता बाई का चित्तौड़गढ़ में पुनः आगमन

Jaiwanta Bai's return coalesce Chittorgarh

उदय सिंह अपने बेटे और रानी को अब महल मे किसी भी हाल में वापस लाना चाहते थे क्योंकि महाराजा उदय सिंह की छवि पर कई तरह के प्रश्न चिन्ह लग रहे थे। 

उदयसिंह ने महारानी जयवंता बाई को सभी तरह के आश्वासन दिए और वचन दिया कि उन्हें या उनके पुत्र को कोई हानि नहीं पहुंचाएगा और उनका पूरा सम्मान किया जाएगा। बहुत सोच विचार के बाद जयवंता बाई ने चित्तौड़गढ़ आने के लिए हामी भर दी।

इतिहास की कुछ पुस्तकों के अनुसार जब महाराणा प्रताप 13 वर्ष के थे तब जयवंता बाई वापस चित्तौड़गढ़ आई थी,इसका मतलब लगभग सन 1553 में जयवंता बाई अपने पुत्र प्रताप के साथ पुनः चित्तौड़ आई।

हल्दीघाटी युद्ध के बाद जयवंता बाई कहां गई?

Where did Jaiwanta Baic go after the Haldighati battle?

हल्दीघाटी युद्ध के बाद छोटी सी बात पर अपने भाई से झगड़ कर शत्रु से मिल जाने की ग्लानि अंदर ही अंदर शक्ति सिंह को कचोट रही थी आखिरकार शक्ति सिंह ने अपने चुने हुए राजपूत साथियों के साथ मेवाड़ लौट जाने का फैसला किया परंतु शक्ति को लगा कि खाली हाथ महाराणा से मिलना उचित नहीं होगा। 

अतः एक छोटी सेना एकत्र करके शक्ति सिंह ने माइनसोर के दुर्ग पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में ले लिया। मेवाड़ आकर शक्ति सिंह ने यह किला महाराणा प्रताप को भेट किया।

महाराणा प्रताप जब पर्वतों में जगह-जगह अपने स्थान बदलकर मुगलों के विरुद्ध छापामार युद्ध करने की योजना बना रहे थे तो उन्होंने अपने बेटे अमर सिंह के परिवार तथा अन्य परिजनों को साथ रखा लेकिन अपनी वृद्ध माता जयवंता बाई को इस तरह से भटकने का कष्ट ना हो यह सोच कर महाराणा प्रताप ने जयवंता बाई को माइनसोर के किले में शक्ति सिंह के पास भेज दिया। 

शक्ति सिंह जयवंता बाई का बहुत सम्मान करता था इसी कारण शक्ति सिंह ने जयवंता बाई का भरपूर आदर सम्मान किया और उनकी सुख सुविधा का सारा प्रबंध कर दिया। 

कहते हैं जयवंता बाई भी वहां जाकर बहुत खुश थी क्योंकि वह शक्ति सिंह को भी प्रताप की तरह स्नेह करती थी।

जयवंता बाई की मृत्यु कब हुई

When did Jaiwanta Bai die?

जयवंता बाई की मृत्यु कब हुई इस संबंध में कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता है परंतु कुछ प्रामाणिक किताबों के अनुसार जयवंता बाई की मृत्यु सन 1617 से 1620 के मध्य 80 वर्ष में हुई थी।

धन्य हो ऐसी साहसी, स्वाभिमानी, उच्च संस्कारित माता जिन्होंने बालक प्रताप को "महाराणा प्रताप" बनाया।

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